ज़िन्दगी ऐसे बीत रही है जैसे हाथ में रेत,
फिसलती जा रही है......
जो अभी है उसकी ख़ुशी से ज्यादा,
किसी के ना होने का गम सताता है........
इस पल को कितना भी रोकना चाहू,
हाथ की मुट्ठी बंद कर लू.......
पर ये रेत है......ये न रुक पायेगी......
सोचता हु,बरसात हो खुशियों की..
ताकि मिटटी ये हाथो में जम जाये......
पर फिर भूल जाता हु...
ये रेत है........ये तो उस बरसात में बह जायेगी....
फिर ख्याल आया फिजा चले.......
खुशबु जिसकी हमारी ख़ुशी बन जाये.....
फिजा तो चल रही है.......
फिर भी बेरुखी देखो इन फिजाओ की,
साँसे चल कर भी जीना दुश्वार कर रही है............
सही यही होता.......
अगर हम इस रेत को सहेज कर रखते.....
ताकि अगर फिर कभी वक़्त यही समां दोहराता,
हम उन्ही हसी लम्हों को फिर महसूस करते,
फिर उस रेत को हाथ में ले.....
फिर उन्हें फिसलने देते.........
शायद तब हमे इन्हें बीतने देते हुए ज्यादा ख़ुशी होती.......