मैं चलता चला गया...
जाने किस सोच में था,
बिना सोचे-समझे, दिखती जो राहें,
उनपर चलता चला गया.....
हूँ गलत राह पर, जब ये जाना,
आगे चलकर सही राह मिल जाएँ,
ये सोच आगे चलता चला गया....
इतना उत्साह किसे था,
मंजिल तक जाने का;
फिर भी न जाने किसके लिए,
मैं आगे चलता चला गया....
मेरा मन क्या चाहता था,
किसे पता ??
अपने प्रश्नों के उत्तरों की तलाश में
मैं आगे चलता चला गया.....
न जाने क्या तर्क बन रहा था,
मेरे चलते जाने का;
अपनी गलती को सही साबित करने क लिए,
मैं आगे चलता चला गया....
अब और क्या कहें,
फिर एक नए मोड़ पर खड़ा हूँ ,
इतना साहस नहीं.... खुदकी हार स्वीकार कर सकूँ.....
संसार की मार से छुपती फिरती,
खुदकी बिखरी शक्शियत को बचाने के लिए,
मैं आगे चलता चला गया.....
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